दिन आया न मल्बूस बदल के न निखर के और लोग भी निकले न शगुफ़्ता न चमकदार तब मैं ने सोचा मिरे काग़ज़ के ग़ुब्बारे न नाचें तो बेहतर है इक उम्र का सदमा है बहुत तल्ख़ ज़मीं को न सालगिरह आज मनाऊँ मैं तो बेहतर वो भी नहीं ख़ुश और न ख़ुश दिन का गुज़र है ऐ उम्र तिरा सख़्त अकेले का सफ़र है तब मैं ने कहा चाँद अगर अपने बदन को औरत का बदन दे तो मैं काँटों के तराज़ू दिल दे के बदल लूँ दिल दे के बदल लूँ मैं क़यामत भी गहन भी और उन के एवज़ उस से कहूँ आज के दिन तो रुक मेरी ज़मीं पर तक़दीर हवा बन के दरख़्तों में खड़ी है और मैं ऐ अजब चीज़ चटानों पे गिरा हूँ