हर बार इसी तरह से फ़ितरत सोने की डली से ढालती है सरसों की कली की ज़र्द मूरत थामा है जिसे ख़म-ए-हवा ने हर बार इसी तरह से शाख़ें खिलती हुई कोंपलें उठाए रस्तों के सलाख़चों से लग कर क्या सोचती हैं ये कौन जाने हर बार इसी तरह से बूँदें रंगों भरी बदलियों से छन कर आती हैं मसाफ़तों पे फैले ताँबे के वरक़ को ठनठनाने हर साल इसी तरह का मौसम हर बार यही महकती दूरी हर सुब्ह यही कठोर आँसू रोने के कब आएँगे ज़माने