ये औरत इस लिए पैदा हुई है कि इस को टुकड़े टुकड़े कर के फाँसी पर चढ़ाया जाए इसे यूनान के इक मशहूर डाकू के बिस्तर की ज़रूरत है (वो अपने सब शिकारों का क़द्द-ओ-क़ामत इसी बिस्तर के पैमाने की निस्बत से घटाता काटता या खींच का जबरन बढ़ाता था) ख़ुतूत-ए-लब तो देखो! किस तरह सिमटे हुए हैं, संग-ए-दिल आमियाना-पन तराविश कर रहा है ये कीना-तूज़ आँखें इन की गहराई के कीचड़ में सुनहरी मछलियाँ ग़ोते लगाती हैं रुपहली शाख़ तौबा है कि खुलती बाँह है, लेकिन कोई साया नहीं पड़ता! मैं अपने ख़ोल के अंदर सिमट कर बैठ रहना चाहता हूँ मुझे मीनार की खिड़की से झुक कर झाँकने की ज़रूरत कुछ नहीं है मगर वो फ़ाहिशा ज़ंजीर-ए-दर की नींद उड़ाए जा रही है वो आँखें ख़ूबसूरत बन गई हैं! मुझे ख़मदार ज़ीनों से उतर कर नीचे आना ही पड़ेगा