ख़ामुशी रेंगती है राहों पर एक अफ़्सूँ-ब-दोश ख़्वाब लिए रात रुक रुक के साँस लेती है अपनी ज़ुल्मत का बोझ उठाए हुए मुज़्महिल चाँद की शुआ'ओं में बीते लम्हों की याद रक़्साँ है जाने किन माह-ओ-साल का साया वक़्त की आहटों पे लर्ज़ां है एक याद इक तसव्वुर-ए-रफ़्ता सीना-ए-माह से उभरता है है ये सरशारी-ए-हयात का रंग दर्द किन मंज़िलों से गुज़रा है