गुज़रे हुए माह ओ साल के ग़म तन्हाई शब में जाग उट्ठे हैं उम्र-ए-रफ़्ता की जुस्तुजू में अश्कों के चराग़ जल रहे हैं आसाइश-ए-ज़िंदगी की हसरत माज़ी का नक़्श बन चुकी है हालात की ना-गुज़ीर तल्ख़ी एक एक नफ़स में बस गई है नाकामी-ए-आरज़ू को दिल ने तस्लीम ओ रज़ा के नाम बख़्शे मिलने की ख़ुशी बिछड़ने का ग़म क्या क्या थे फ़रेब-ए-ज़िंदगी के इक उम्र में अब समझ सके हैं ख़ुशियों का फ़ुसूँ गुरेज़ पा है अब तर्क दुआ की मंज़िलें हैं दामान-ए-तलब सिमट चुका है नाकामी-ए-शौक़ मिटते मिटते जीने का शुऊर दे गई है ये ग़म है नवाए शब का हासिल ये दर्द मता-ए-ज़िंदगी है उजड़ी हुई हर रविश चमन की देती है सुराग़ रंग ओ बू का वीरान हैं ज़िंदगी की राहें रौशन है चराग़ आरज़ू का