बरसो राम धड़ाके से बुढ़िया मर गई फ़ाक़े से कल-जुग में भी मरती है सत-जुग में भी मरती थी ये बुढ़िया इस दुनिया में सदा ही फ़ाक़े करती थी जीना उस को रास न था पैसा उस के पास न था उस के घर को देख के लक्ष्मी मुड़ जाती थी नाके से बरसो राम धड़ाके से झूटे टुकड़े खा के बुढ़िया तपता पानी पीती थी मरती है तो मर जाने दो पहले भी कब जीती थी जय हो पैसे वालों की गेहूँ के दल्लालों की उन का हद से बढ़ा मुनाफ़े' कुछ ही कम है डाके से बरसो राम धड़ाके से