बातिनी छत By Nazm << तुम ही बताओ कभी कभी >> शहाब साक़िब का खेल दिल की अगर फ़ज़ाओं को ख़ीरा कर दे तो मैं समझ लूँ कि मेरे अंदर कशिश की सरहद पे एक छत है कि जिस में पैहम मसर्रतों के हज़ारों तारे चमक रहे हैं मगर क़दामत की इंतिहा को जो छू चुके हैं शिकस्ता हो कर हर एक लम्हा बिखर रहे हैं Share on: