उसी जगह से धुँदलाया है हर आईना जहाँ-जहाँ पर अक्स ठिठक कर ठहर गया है एक दराड़ सी उग आई है उस के पीछे फैलता सूरज सहम के शबनम की नरमी में रस्ता ढूँडने निकल पड़ा है पलकों पर से क़तरा क़तरा बहता सागर खिंचते खिंचते पूरे फ़लक पर फैल गया है और सिमट कर कई लकीरें बह निकली हैं ऐसे जैसे शहर की गलियाँ रस्सी के बल खाते टुकड़े एक अज़ीम मसाफ़त के सैलाब में पल पल डूब रहे हैं दस्त-ए-फ़लक से कट कर गिरते सब ख़्वाबों का अक्स रुका है आईने में आधे सोए सोए सितारे नींद के गहरे गढ़े में उतरे जाते हैं जो पथराई आँख में जम कर भी पानी से भरा हुआ है