बेटे को पहले कहते थे आँखों का नूर है लेकिन ये अब हमारी नज़र का क़ुसूर है कुछ दिल से एहतिराम नहीं वालदैन का बेज़ार अपने दीन से मज़हब से दूर है कॉलेज तो दरकिनार जो हैं दीनी मदरसे आदाब-ए-मग़रिबी का यहाँ भी ज़ुहूर है कुछ मक़्सद-ए-हयात न ख़ौफ़-ए-ख़ुदा उसे जन्नत की आरज़ू है न मुश्ताक़-ए-हूर है बी-ए में पढ़ रहा है ये नॉलिज का हाल है नक़्शे में लखनऊ को कहे कानपूर है बेटे में चाहे लाख ख़राबी हो 'मुख़्तसर' शादी के वक़्त बाइ'स-ए-इन्कम ज़रूर है