पहले क्या कम थी मुसीबत मिरे घर में कि अब हो गए हैं मिरे सरताज ग़ज़ल-गो शाइ'र हस्ब-ए-दस्तूर पड़े रहते हैं सोचों में गुम न वो मेरे लिए घर में हैं न घर से बाहर पहले भी काम न करते थे वो घर का कोई अब तो कुछ और भी सुस्ती में हुए हैं माहिर ज़िंदा होतीं मिरी अम्माँ तो मैं उन से कहती इस से तो अच्छा था रख लेतीं वो कोई नौकर आमद होती है तो ये हुक्म दिया जाता है कोई कुछ बोला तो हो जाएगा घर से बाहर एक आफ़त में मिरी जान फँसी है या-रब भेज दे मेरे लिए अब तो कोई चारागर कोई तो हो जो कहे ऐ मियाँ 'हम्माद' 'हसन' जाओ बीवी को घुमा लाओ कभी चिड़िया-घर