ये मेरे दिल की पगडंडी पे चलती नज़्म है कोई कि सैल-ए-वक़्त की भटकी हुई इक लहर सा लम्हा जो आँचल पर सितारे और उन आँखों में आँसू टाँक देता है सितारों की चमक और आँसुओं की झिलमिलाहट में किसी एहसास-ए-गुम-गश्ता से लिखा बाब है शायद कोई सैलाब है शायद या इक बे-नाम सी रस्म-ए-तअ'ल्लुक़ का तराशा ख़्वाब है शायद जो आँखों में उतरते ही कभी चुप की सुरंग और बर्फ़ साँसों की लड़ी में झूलता है और कभी बहता है सच बन कर लहू की हर रवानी में नज़र से झाँकती इक उम्र जैसी राएगानी में मगर दिल की तहों में इक ख़लिश सी कसमसाती और कहती है ये सच कैसा है कि जलते हुए दिल को गुमाँ तक भी जो छाँव का न दे पाए ये कैसा सच है जिस की थाम कर उँगली कोई रस्तों में खो जाए