इक फ़ुसूँ-कार बुत-तराश हूँ मैं ज़िंदगी की तवील रातों को बार हाले के तेशा-ए-अफ़्क़ार बुत तराशे हैं सैंकड़ों मैं ने तिरे साँचे में ढालने के लिए चाँद से नूर-ए-मर्मरीं ले कर तेरा सीमीं बदन तराश लिया मेहर से ताब-ए-आतिशीं ले कर तिरे रंगीं लबों का रूप दिया ले के तौबा की अम्बरीं साए तेरी ज़ुल्फ़ों के बाल महकाए घूम कर ख़ुल्द की फ़ज़ाओं में सरमदी सरख़ुशी उठा लाया रंग भर कर तिरी अदाओं में अबदी राहतों को शरमाया ले के सीमा-ए-हूर की तक़्दीस छीन कर मैं ने क़ुदसियों का वक़ार ज़िंदगी दी तिरी निगाहों को और बनाईं तिरी हसीं आँखें नज़र-ए-बद कहीं न लग जाए मैं ने तारों से छीन लें आँखें फिर भी मैं तुझ से दूर दूर रहा फिर भी तुझ से न मिल सकीं आँखें यूँ तो इक कोहना बुत-तराश हूँ में ज़िंदगी की तवील रातों को बार हाले के तेशा-ए-अफ़्क़ार बुत-तराशे हैं सैंकड़ों मैं ने बुत-तराशे हैं तोड़ डाले हैं