हुज़ूर मैं इस सियाह चादर का क्या करूँगी ये आप क्यूँ मुझ को बख़्शते हैं ब-सद इनायत न सोग में हूँ कि उस को ओढूँ ग़म-ओ-अलम ख़ल्क़ को दिखाऊँ न रोग हूँ मैं कि इस की तारीकियों में ख़िफ़्फ़त से डूब जाऊँ न मैं गुनाहगार हूँ न मुजरिम कि इस स्याही की मेहर अपनी जबीं पे हर हाल में लगाऊँ अगर न गुस्ताख़ मुझ को समझें अगर मैं जाँ की अमान पाऊँ तो दस्त-बस्ता करूँ गुज़ारिश कि बंदा-परवर हुज़ूर के हुजरा-ए-मुअत्तर में एक लाशा पड़ा हुआ है न जाने कब का गला सड़ा है ये आप से रहम चाहता है हुज़ूर इतना करम तो कीजे सियाह चादर मुझे न दीजिए सियाह चादर से अपने हुजरे की बे-कफ़न लाश ढाँप दीजिए कि उस से फूटी है जो उफ़ूनत वो कूचे कूचे में हाँफती है वो सर पटकती है चौखटों पर बरहनगी तन की ढाँपती है सुनें ज़रा दिल-ख़राश चीख़ें बना रही हैं अजब हयूले जो चादरों में भी हैं बरहना ये कौन हैं जानते तो होंगे हुज़ूर पहचानते तो होंगे ये लौंडियाँ हैं कि यर्ग़माली हलाल शब-भर रहे हैं दम-ए-सुब्ह दर-ब-दर हैं हुज़ूर के नुतफ़े को मुबारक के निस्फ़ विर्सा से बे-मो'तबर हैं ये बीबियाँ हैं कि ज़ौजगी का ख़िराज देने क़तार-अंदर-क़तार बारी की मुंतज़िर हैं ये बच्चियाँ हैं कि जिन के सर पर फिरा जो हज़रत का दस्त-ए-शफ़क़त तो कम-सिनी के लहू से रीश-ए-सपेद रंगीन हो गई है हुज़ूर के हजला-ए-मोअत्तर में ज़िंदगी ख़ून रो गई है पड़ा हुआ है जहाँ ये लाशा तवील सदियों से क़त्ल-ए-इंसानियत का ये ख़ूँ-चकाँ तमाशा अब इस तमाशा को ख़त्म कीजे हुज़ूर अब इस को ढाँप दीजिए सियाह चादर तो बन चुकी है मिरी नहीं आप की ज़रूरत कि इस ज़मीं पर वजूद मेरा नहीं फ़क़त इक निशान-ए-शहवत हयात की शाह-राह पर जगमगा रही है मिरी ज़ेहानत ज़मीन के रुख़ पर जो है पसीना तो झिलमिलाती है मेरी मेहनत ये चार-दीवारियाँ ये चादर गली सड़ी लाश को मुबारक खुली फ़ज़ाओं में बादबाँ खोल कर बढ़ेगा मिरा सफ़ीना मैं आदम-ए-नौ की हम-सफ़र हूँ कि जिस ने जीती मिरी भरोसा-भरी रिफ़ाक़त