ग़ज़ल सदाओं का एक जंगल तरस रहा है बुलंद-ओ-बाला घनेरे बरगद की शाख़-दर-शाख़ सनसनाहट के ज़मज़मों को कि दर-हक़ीक़त बुलंद-ओ-बाला घनेरे बरगद की इन्फ़िरादी तनावरी को फ़ना की दीमक निगल गई है ग़ज़ल जो उर्दू अदब के बर्र-ए-सग़ीर पर थी नए तक़ाज़ों नए सलीक़ों का इक हिमाला-सिफ़त सरापा वो अपनी चोटी से मुंक़ता' है कि अब वो चोटी नहीं रही है ग़ज़ल की इस आबरू के बदले बस अब तो यादों की ख़ल्वतों में सुलगती सोचों में साँस लेते चंद इक फ़साने मताअ'-ए-अहबाब रह गए हैं वो चंद बरसों की इक रिफ़ाक़त जो रस्म-ओ-रह के अटूट संगम में ढल चुकी थी बस एक लम्हे की तुंद करवट ने छीन ली है हरीम-ए-दिल कर्ब-गाह-ए-इज़हार बन गई है लबों पे अब मोहर-ए-ख़ामुशी है किसे सुनाएँ वो दिल की धड़कन जिसे जवाबों का इल्तिफ़ात-ए-शुऊ'र-अंगेज़ बे-महाबा झिंझोड़ कर उस की फ़िक्रियाती अमीक़ परतों में सोई सोई सी रूह-ए-एहसास को जगाए जुनूँ को महमेज़-ए-ग़म दिखाए परिंद-ए-तख़्ईल को उड़ाए ख़ला की इक़्लीम का मुसाफ़िर जहाँ वो उठ कर चला गया है वहाँ ख़ला का सवाल क्या है ख़ला तो अब उस के पीछे पीछे ही रह गया है जहाँ हम ऐसे फ़क़ीर तहलील हो के 'राही' वजूद भी अपना खो चुके हैं बहुत मुकाफ़ात-ए-बे-वजूदी को रो चुके हैं