कभी वो सदा गुनगुनाती सुबुक-रौ हवाओं की आहट थी धीरे से गिरती हुई नींद से चूर पलकों की लर्ज़िश थी गुंग और नीली फ़ज़ाओं में उड़ते हुए एक पंछी की मस्ती भरी फड़-फड़ाहट का नग़्मा कली के चटकने की आवाज़ थी अब वही इक सदा गूँजते गूँजते बावली रात की चीख़ में है हवाओं की रोती हुई बाँसुरी बादलों की गरज मेरी रग रग से उठते हुए दर्द की लय बनी है कभी मेरे वीरान साँसों में चलते हुए तेज़ झक्कड़ की आवाज़ है मेरी सुलगी हुई ख़्वाहिशों का उमडता हुआ शोर है