कितने ही साहिब-ए-दिल अहल-ए-नज़र अहल-ए-क़लम इक ज़माने से यूँही लिखते चले आए हैं वही इक क़िस्सा-ए-दिल-दोज़ कि जो सदियों से है रवाँ मुफ़्लिस-ओ-ज़रदार के बीच एक इक हर्फ़ लिखा ख़ून-ए-जिगर से लेकिन कुछ नहीं बदला बजा कहते हो कुछ न बदलेगा मैं जो भी लिक्खूँ हाँ ये सच है मैं इसे मानती हूँ लेकिन ऐ दोस्त सुनो इतना हक़ मुझ को दो चोट लगती है अगर रोने तो दो