शाम के दामन में पेचाँ नीम-अफ़रंगी हसीं नुक़रई पारों में इक सोने की लाग रह गुज़र में या ख़िरामाँ सर्द आग या किसी मुतरिब की ले इक तिश्ना तकमील राग एक बहर-ए-बे-कराँ की झिलमिलाती सत्ह पर ज़ौ-फ़गन अफ़साना-हा-ए-रंग-ओ-नूर नीले नीले दो कँवल मौजों से चूर बहते बहते जो निकल जाएँ कहीं साहिल से दूर चाँद सी पेशानियों पर ज़रफ़िशाँ लहरों का जाल अहमरीं उड़ता हुआ रंग-ए-शराब जम गई हैं अशअ'-ए-सद-आफ़ताब गर्दनों के पेच-ओ-ख़म में घुल गया है माहताब इशरत-ए-परवाज़ में क्या नाला-हा-ए-तेज़-तेज़ उड़ गया दिन की जवानी का ख़ुमार शाम के चेहरे पे लौट आया निखार हो चुके हैं हो रहे हैं और दामन दाग़-दार उस का ज़र्रीं तख़्त सीमीं जिस्म है आँखों से दूर जाम-ए-ज़हर-आलूद से उठते हैं झाग चौंक कर अंगड़ाइयाँ लेते हैं नाग जाग 'अनतोनी' मोहब्बत सो रही है जाग जाग