एक ख़ुश-गवार दिन जब लोग अपने दफ़्तर और बच्चे स्कूल वक़्त पर पहुँच जाते हैं दहशत-गर्द शायर अपने ख़्वाबों की बंदूक़ ले कर हवाई-फ़ाइरिंग शुरूअ कर देते हैं कोई हलाक नहीं होता कोई ज़ख़्मी नहीं होता किसी को डर नहीं लगता किसी दरख़्त से एक पत्ता तक नहीं गिरता किसी खिड़की का शीशा भी नहीं टूटता शायर अपना काम जारी रखते हैं मगर शाम होने तक किसी दीवार में एक सुराख़ तक नहीं कर पाते किसी दरवाज़े पर निशान भी नहीं डाल पाते लोग हस्ब-ए-मामूल घरों को वापस आते हैं बच्चे रास्तों में क्रिकेट खेलते हैं लेकिन किसी को ख़्वाबों के ख़ाली कारतूस नहीं मिलते दहशत-गर्द शायर कहीं नज़र नहीं आते जब रात होती है तो अचानक अंधेरे में कभी रौशनी की लकीरें आसमान की तरफ़ जाती नज़र आती हैं इसी मामूली चमक में सितारे अपना रास्ता बनाते हैं इसी रास्ते पर दहशत-गर्द शायर अपनी बंदूक़ लिए ज़िंदगी भर परेड करते रहते हैं
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