कल रात मिरा बेटा मिरे घर चेहरे पे मुंढे ख़ाकी कपड़ा बंदूक़ उठाए आ पहुँचा नौ-उम्री की सुर्ख़ी से रची उस की आँखें मैं जान गई और बचपन के संदल से मंढा उस का चेहरा पहचान गई वो आया था ख़ुद अपने घर घर की चीज़ें ले जाने को अन-कही कही मनवाने को बातों में दूध की ख़ुशबू थी जो कुछ भी सैंत के रक्खा था मैं सारी चीज़ें ले आई इक लाल-ए-बदख़्शाँ की चिड़िया सोने का हाथ छोटा सा चाँदी की इक नन्ही तख़्ती रेशम की फूल भरी टोपी अतलस का नाम लिखा जुज़दान जुज़दान में लिपटा इक क़ुरआँ पर वो कैसा दीवाना था कुछ छोड़ गया कुछ तोड़ गया और ले भी गया है वो तो क्या लोहे की बद-सूरत गाड़ी पेट्रोल की बू भी आएगी जिस के पहिए भी रबर के हैं जो बात नहीं कर पाएगी बच्चा फिर आख़िर बच्चा है