बहुत देर से जल रहा था इक चराग़ उस बंद कमरे में सूरज का इक टुकड़ा हथेली से बट के बत्ती बना ली थी चाँद के कोएले से आग लगा रक्खी थी मिट्टी के गमले में रौशनी उगा रक्खी थी बुझा दिया था मैं ने ख़ुद अपने ही हाथ से फिर देर तक उस के धुएँ में दम घुटता रहा उसी शाम दिल के बंद कमरे में बुझाया था मैं ने एक रिश्ता आज तक धुएँ से मेरा दम घुटता है