अटूट रिश्तों के सारे बंधन शिकस्ता सोचों के दाएरों में सिमट गए हैं हम अपनी रह से भी हट गए हैं सुकून-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र की ख़ातिर हम अपनी अपनी मसाफ़तों की तलाश में हैं मगर ये शहर-ए-अना जो हम को अज़िय्यतें-दर-अज़िय्यतें दे क़रार छीने सुकून लूटे हमेशा नफ़रत की आरियों से हमारी शह-रग को काटता है हमारे सीनों में ज़ख़्म बोए गए हैं इतने कि जिन की शिद्दत से काँप उट्ठा वजूद सारा हम इतने घाव छुपाए दिल में न जाने कैसे दुखों से अपने बदन को ढाँपे अज़ाब मौसम में जी रहे हैं