दर्द का नाम पता मत पूछो दर्द इक ख़ेमा-ए-अफ़्लाक इस इक़्लीम पे है साया कुनाँ तुम इसे क़ुतुब शुमाली कह लो तुम जिधर आँख उठा कर देखो बर्फ़ ही बर्फ़ है और रात ही रात हम वो मौजूद कि जिन में शायद ज़िंदगी बनने के आसार अभी बाक़ी थे हशरात ऐसे कि जिन को शायद रौशनी और हरारत की ज़रूरत थी अभी इस अंधेरे में कहो बर्फ़ पे रेंगें कैसे कोई बतलाओ कि इस रात के आज़ार से निकलें कैसे रात ऐसी कि जो ढलती ही नहीं बर्फ़ ऐसी कि पिघलती ही नहीं