कैसी पुर्वा आज चली है दर्द पुराने जाग उठे वक़्त की ढलती छाँव में बैठे अपनी गाथा लिखते थे हँसते थे और रोते थे और पीड़ पुरानी भूले थे लेकिन कुछ तो यार बताओ कैसी पुर्वा आज चली है दर्द पुराने जाग उठे मैं दीवाना शहर-बदर था शहर से मुझ को लेना क्या दुख की गठरी छोड़ आनी थी उस को ढोए फिरना क्या उस का बोझ भी कम था 'रिज़वाँ' कैसी पुर्वा आज चली है दर्द पुराने जाग उठे भीगी भीगी आँखों में कुछ ख़्वाब पुराने जाग उठे कुछ ज़ख़्म खुले कुछ दर्द बढ़ा कुछ दर्द पुराने जाग उठे कैसी पुर्वा आज चली है यार बता