गड़ी हैं कितनी सलीबें मिरे दरीचे में हर एक अपने मसीहा के ख़ूँ का रंग लिए हर एक वस्ल-ए-ख़ुदा-वंद की उमंग लिए किसी पे करते हैं अब्र-ए-बहार को क़ुर्बां किसी पे क़त्ल मह-ए-ताबनाक करते हैं किसी पे होती है सरमस्त शाख़-सार-ए-दो-नीम किसी पे बाद-ए-सबा को हलाक करते हैं हर आए दिन ये ख़ुदावंदगान-ए-मेहर-ओ-जमाल लहू में ग़र्क़ मिरे ग़म-कदे में आते हैं और आए दिन मिरी नज़रों के सामने उन के शहीद जिस्म सलामत उठाए जाते हैं