पार करना है मुझ को दश्त-ए-उम्र मेरी मंज़िल-ए-अदम है उस के पार आगे कितना तवील रस्ता है और कितना कठिन नहीं मा'लूम शौक़-ए-मंज़िल मुझे न ज़ौक़-ए-सफ़र हम-सफ़र है न है कोई रहबर और हर गाम पर सराब कोई है मिरी तिश्नगी बढ़ाने को चल रहा हूँ में बे-दिली के साथ ये सफ़र मुझ पे है गराँ लेकिन मैं उसे तर्क कर नहीं सकता मैं तो पल-भर ठहर नहीं सकता ये मुक़द्दर है या कि मजबूरी चलते रहना है मुझ को हर सूरत