दोस्त कहते हैं तिरे दश्त-ए-वफ़ा में कैसे इतनी ख़ुशबू है महकता हो गुलिस्ताँ जैसे गो बड़ी चीज़ है ग़मख़ारी-ए-अर्बाब-ए-वफ़ा कितने बे-गाना-ए-आईन-ए-वफ़ा हैं ये लोग ज़ख़्म-दर-ज़ख़्म मोहब्बत के चमन-ज़ार में भी फ़क़त इक गुंचा-ए-मंतिक़ के गदा हैं ये लोग मैं उन्हें गुलशन-ए-एहसास दिखाऊँ कैसे जिन की पर्वाज़-ए-बसीरत पर-ए-बुलबुल तक है वो न देखेंगे कभी हद-ए-नज़र से आगे और मिरी हद्द-ए-नज़र हद्द-ए-तख़य्युल तक है दिल के भेदों को भी मंतिक़ में जो उलझाते हैं यूँ समझ लें कि बबूलों में भी फूल आते हैं