मगर मसरूफ़ियत इतनी कि फ़ुर्सत ही नहीं मिलती थी तुझ से बात करने की मगर सद-शुक्र मुझ को आज-कल फ़ुर्सत ही फ़ुर्सत है करूँ क्या एक मुद्दत से मीरी ख़्वाहिश है हसरत है कि तुझ से गुफ़्तुगू होती सो अब आ जा किसी भी दिन किसी भी वक़्त तेरा दिल जहाँ चाहे किसी जंगल में चश्मे के किनारे किसी पर्बत किसी सहरा किसी गुलशन में वीराने में बस्ती में हुजूम-ए-कैफ़-ओ-मस्ती में जहाँ भी तेरा दिल चाहे नहीं हरगिज़ मैं इस क़ाबिल मगर फिर भी यही कहता है मेरा दिल ऐ ख़ुदा-ए-लम-यज़ल कहीं इक बार मुझ से मिल कहीं इक बार मुझ से मिल