ज़िंदगी इश्क़ की वहशत-भरा अफ़्साना थी मेरे हाथों में वो इक ज़हर का पैमाना थी रूह का ग़म मा-ए-गुलफ़ाम से कम क्या होता कोई तिरयाक ब-जुज़ वस्ल-ए-सनम क्या होता खो गई 'पारबती' रोती रही 'चंद्रमुखी' ज़िंदगी लुटती रही राह-गुज़ारों में मिरी ग़मगुसारों की भी याद आई मगर भूल गया उस की बाँहों के सिवा कुछ न मुझे याद रहा इक उभरती रही तस्वीर ख़ला में बरसों मैं अकेला ही फिरा दश्त-ए-वफ़ा में बरसों जल बुझा जिस्म के हमराह दिल-ए-सोज़ाँ तक जान देने चला आया हूँ दर-ए-जानाँ तक मर रहूँ जैसे बे-बस-ओ-लाचार मरे क्या क़यामत है कि यूँ इश्क़ का बीमार मरे ना-उमीदी है कि अब ताक़त-ए-दीदार गई रुख़-ए-जानाँ की हवस रूह-ए-गिरफ़्तार गई रात लो ख़त्म हुई और ज़बाँ बंद हुई मुझ को मा'लूम था ख़ामोश सवेरा होगा लोग फेंक आएँगे मुझ को जहाँ उस मरघट पर मौत का छाया हुआ घोर अँधेरा होगा चील कव्वों ने मगर लाश के टुकड़े कर के हर तरफ़ कूचा-ए-जानाँ में बिखेरा होगा