बहुत दिन से वतन में इक महाज़-ए-जंग क़ाएम है कहीं है धर्म को ख़तरा कहीं ईमान को ख़तरा बपा है सख़्त तूफ़ाँ रूनुमा हैं सख़्त हंगामे कहीं है वेद को ख़तरा कहीं क़ुरआन को ख़तरा कहीं मस्जिद को ख़तरा है शिवाले के महंतों से कहीं है ख़ानकह वालों से देव स्थान को ख़तरा कहीं मुस्लिम को ख़तरा अपने ईमानी तहफ़्फ़ुज़ का कहीं हिन्दू के पूजा-पाट के सम्मान को ख़तरा कहीं शुद्धि के पर्चारक को ख़तरा धर्म रक्षा का कहीं तब्लीग़ के झंडे की आन-बान को ख़तरा नहीं होता कोई ऐसा मिनट चौबीस घंटे में न रहता हो वतन वालों के माल-ओ-जान को ख़तरा ये सारी पेश-बंदी है फ़क़त इस बात की ख़ातिर कि लाहक़ हो न ब्रिटिश राज के ऐवान को ख़तरा ये ठेकेदार दीन और धर्म के इस के भी ज़ामिन हैं न पैदा हो मफ़ाद-ए-अहल-ए-इंग्लिस्तान को ख़तरा ये ख़ाना-जंगियाँ जितनी हैं सब का मुद्दआ' ये है न हरगिज़ रूनुमा हो जान बल की जान को ख़तरा ग़ुलामान-ए-अज़ल या'नी ये झूटे पेशवा-ए-दीं लगा रहता है हर दम जिन के दस्तर-ख़्वान को ख़तरा वो कब चाहेंगे कोई इस तरह का इंक़लाब आए कि हो महसूस उन के अम्न-ओ-इत्मीनान को ख़तरा हमारा फ़र्ज़ है हम उन लफंगों को फ़ना कर दें कि है उन सब के सब से आम हिन्दोस्तान को ख़तरा