याद है मुझ को जब मैं चढ़ कर एक पहाड़ी की चोटी पर शाख़ पे एक दरख़्त के बैठा करता था मैं तेरा नज़ारा कोसों तक वो तेरा शेवा धानी माशी का ही भूरा कोसों तक वो तेरे मैदाँ सुथरे साफ़ चटीले मैदाँ छिटकी छिटकी झाड़ियाँ उस पर क़ुदरत की गुल-कारियाँ उस पर ताल तलैयाँ दरिया रेती बाग़ चमन आबादी खेती ऐसे थे सब मेरी नज़र में पाएँ बाग़ हो जैसे घर में जब मैं ये सब देख रहा था ख़ुश था दिल और ये कहता था हद्द-ए-नज़र को और बढ़ाऊँ ऐसी बुलंदी पर चढ़ जाऊँ ऐसी चोटी पर जा बैठूँ मैं साफ़ जहाँ से देख सकूँ मैं शहर और सूबे गाँव और क़स्बे बिखरे बिखरे छिटके छिटके सारा क़ुदरत का फ़र्नीचर मेरे आगे आए सिमट कर सारी इंसानी आबादी या'नी दुनिया की आबादी मेरे आगे खेल रही हो रोती गाती और हँसती हो इस मह्विय्यत में जब मैं था मुझ को हुआ मालूम कि गोया कोई मुझ को खींच रहा है चौंक पड़ा मैं कौन है क्या है