दीवारों का जंगल जिस का आबादी है नाम बाहर से चुप चुप लगता है अंदर से कोहराम दीवारों के इस जंगल में भटक रहे इंसान अपने अपने उलझे दामन झटक रहे इंसान अपनी बीती छोड़ के आए कौन किसी के काम बाहर से चुप चुप लगता है अंदर से कोहराम सीने ख़ाली आँखें सूनी चेहरे पे हैरानी जितने घने हंगामे उस में उतनी घनी वीरानी रातें क़ातिल सुब्हें मुजरिम मुल्ज़िम है हर शाम बाहर से चुप चुप लगता है अंदर है कोहराम हाल न पूछें दर्द न बाँटें उस जंगल के लोग अपना अपना सुख है सब का अपना अपना सोग कोई नहीं जो हाथ बढ़ा कर गिरतों को ले थाम बाहर से चुप चुप लगता है अंदर है कोहराम बेबस को दोषी ठहराए उस जंगल का न्याय सच की लाश पे कोई न रोए झूट को सीस नवाए पत्थर की उन दीवारों में पत्थर हो गए राम बाहर से चुप चुप लगता है अंदर है कोहराम