बस्ती में इक किनारे दो पेड़ थे बेचारे कहते थे अपना दुखड़ा किस को सुनाएँ प्यारे इंसाँ ने हम से बदले किस बात के उतारे हम तो उन्हें दिखाएँ दिलकश हसीं नज़ारे ख़ुद पास कुछ न रखें फल उन को दे दें सारे उन के मवेशियों को दें हम ही सब्ज़ चारे बारिश हो हम जो छोड़ें कुछ भाप के ग़ुबारे हो धूप चिलचिलाती तब हम बनें सहारे गर्मी में हम चलाएँ ठंडी हवा के धारे गंदी हवा को छानें शाख़ों को हम पसारे लेकिन सिला ये पाया इन ख़िदमतों का प्यारे मारे कोई कुल्हाड़ी कोई चलाए आरे बच्चों का ग़ोल आया जब भी तले हमारे शाख़ें किसी ने तोड़ीं पत्थर किसी ने मारे चाक़ू से नाम खोदा छिलके भी छील उतारे हम तो यहाँ पे उग कर मारे गए हैं मारे जंगल में हम जो उगते होते मज़े हमारे दिन शहरी ज़िंदगी के किस दुख से हैं गुज़ारे