डोर By Nazm << मेरी एक बुरी आदत थी आदत >> कभी कभी उलझ जाती हैं डोर न कोई सिरा न कोई छोर इकसार ढलने लगता है रंग बदलने लगता है गिर्हें खुलती जाती हैं रेशा जलने लगता है खींचो तो और उलझती लगती है न ही टूटे से सुलझती लगती है कुछ इसी तरह उलझ गई हैं हमारी साँसों की डोर भी Share on: