तेरा जिस्म लहू है मेरा जिस की बूँदें गुल-दस्ते के फूल हैं दीवारों पर तस्वीरें हैं कश्ती कश्ती डोल रही है लेप के साए ये सब मेरी ज़ंजीरें हैं जिन को मेरे ज़ेहन का आहन काट रहा है कब तक मैं ज़िंदाँ में बैठा आने वाले कल को मुश्त-ए-ख़ाक समझ कर ज़र्रे ज़र्रे को भींचूँगा दर्द की आवाज़ से कब तक गीत सुनूँगा अँगारों पर लोट रहा हूँ कब तक चोब-ए-मुनक़्क़श थामे मैं सोचूँगा वो ये शाख़ है जिस में इक दिन फूल खिलेंगे