वो दिन भी कैसे दिन थे जब तेरी पलकों के साए शाम की गहरी उदासी बन के मिरी रूह में जादू जगाते थे मिरी आँखों में नींदें तेरे बालों की तरह ऐसे सुबुक से जाल बनती थीं कि जो हल्क़ा-ब-हल्क़ा ख़्वाब-अंदर-ख़्वाब अनजाने ज़मानों की गुरेज़ाँ साअ'तों पर अब्र की सूरत बरसते थे बदलते मौसमों की तरह तेरे जिस्म पर आलिम गुज़रते थे मिरी जाँ तो बहार-ए-जावेदाँ का एक मौसम थी जो मेरी रूह में आया मुझे क्यूँ याद आते हैं वो दिन जवाब न आएँगे न आएँगे तो फिर क्यूँ याद आते हैं वो दिन भी कैसे दिन थे जब मेरी बेदारियों की सरहदें ख़्वाबों से मिलती थीं वो बातें जो कि ना-मुम्किन हैं मुमकिन थीं जहाँ बस सोच लेना और हो जाना बराबर था तुझे क्या याद है वो दिन कि जब हर्फ़-ए-शिकायत की गिरह सी पड़ गई थी मेरे सीने में मेरी आज़ुर्दगी से शाम के चेहरे पे ज़र्दी थी मैं तेरे पास बैठा सोचता था जाने क्या क्या सोचता था तुझे क्या याद है तू ने कहा था मैं दिल की बात अगर उस से भी कह सकती तो कह देती कि मेरे जिस्म में दो दिल धड़कते हैं तुम्हारे वास्ते भी जो दुश्मन-ए-जाँ है