हम कहें या न कहें रोज़-ए-रौशन की तरह दुम का अफ़्साना फ़रोज़ाँ ही रहा है अब तक कुलबुलाती हुई सीमाब सिफ़त और सुबुक-रौ वो दुम किसी शाइ'र के तख़य्युल की तरह बाँकी सी ख़ूब सजती है सग-ए-लैला पर हाए अफ़सोस वो दुम जो कि नलकी में रही क़ैद परेशान-ओ-ज़ुबूँ बारह बरस फिर भी निकली तो वो टेढ़ी निकली किसी महबूब के अबरू-ए-ख़मीदा की तरह किसी शहनाज़ के गेसू-ए-बुरीदा की तरह बुत-ए-तन्नाज़ के औसाफ़-ए-हमीदा की तरह अपने मरकज़ की तरफ़ माइल-ए-परवाज़ है दुम देख कर दुम की वो सीमाब-सिफ़त बाँकी अदा शाइ'र-ए-वक़्त मचल जाता है और पहरों वो ख़लाओं में कहीं एक बेगाना तसव्वुर की तरह आवारा सैकड़ों हुस्न-ओ-मोहब्बत के हसीं नग़्मों को काट कर छाँट के मेहनत से बनाता है सदा हू-ब-हू दुम की तरह और दुम जब मिरे आ'साब पे छा जाती है होश उड़ जाते हैं अफ़्कार बदल जाते हैं सैकड़ों तरह के हँसते हुए दुम-दार ख़याल फिर परेशान मुझे करते हैं मैं तड़प जाता हूँ बे-साख़्ता कह उठता हूँ तेरी जुम्बिश से नुमायाँ है ज़मीं की जुम्बिश ऐ दुम आलम-ए-ग़ैज़ में दुम जब भी खड़ी होती है क्या क़यामत की घड़ी होती है काँप जाता है जहाँ होश रुस्तम के भी उड़ जाते हैं चार जानिब से सदा आती है ऐ दुम ऐ दुम अब तो नीची हो जा और दुनिया-ए-मोहब्बत पे कर एहसान ऐ दुम या'नी महबूब के पीछे लग जा ताकि दुम-दार ये सदियों का सितमगर हो जाए और भागे जो छुड़ा कर कभी अपना दामन दुम से पकड़ा जाए