मैं तुझ से क्यूँ ख़फ़ा होने लगा क़ाज़ी मिरी तो रूह तू ने पाक कर दी ये सज़ा दे कर कभी मैं सोचता भी जुर्म को अपने तो अब शायद न सोचूँगा हाँ बुरा गर मान सकता है तो मेरा दूसरा ये हाथ जिस का एक ही साथी था इस दुनिया में जो कुहनी से तू ने काट डाला और ये अपने यार का ग़म किस क़दर और किस तरह लेता है दिल पर इस का मुझे कोई अंदाज़ा नहीं है