सब्ज़ा सब्ज़ा सूख रही है फीकी ज़र्द दोपहर दीवारों को चाट रहा है तन्हाई का ज़हर दूर उफ़ुक़ तक घटती बढ़ती उठती रहती है कोहर की सूरत बे-रौनक़ दर्दों की गदली लहर बस्ता है इस कोहर के पीछे रौशनियों का शहर ऐ रौशनियों के शहर कौन कहे किस सम्त है तेरी रौशनियों की राह हर जानिब बे-नूर खड़ी है हिज्र की शहर-पनाह थक कर हर सू बैठ रही है शौक़ की मांद सिपाह आज मिरा दिल फ़िक्र में है ऐ रौशनियों के शहर शब-ख़ूँ से मुँह फेर न जाए अरमानों की रौ ख़ैर हो तेरी लैलाओं की उन सब से कह दो आज की शब जब दिए जलाएँ ऊँची रक्खें लौ