मुझे और तुम्हें कोई डर नहीं न कोई वादा-वफ़ा करना है न कोई उम्मीद-ए-चराग़ जलाना है एक शादी थी फ़र्सूदा रस्म ज़माने की वो मरहला भी तय कर चुके हम अपनी अपनी जगह हम कितने मुतमइन हैं अब मिलने बिछड़ने का अज़ाब है कब अब जुस्तुजू विसाल कैसा अब लज़्ज़त-ए-लम्स की किसे तमन्ना न ज़माने की फ़िक्र न लोगों का ख़ौफ़ हम इन तमाम जज़्बों से कितने आगे निकल गए हैं ना हाथों की पोरों में सिमट आए हैं तुम लम्हा लम्हा मेरा अंग अंग छूते हो मैं भी अपने सिरहाने तुम्हारे लफ़्ज़ पीती हूँ उँगली के एक इशारे पर दुनिया कितनी सिमट आई है हम को कितना क़रीब ले आई है और मुझे और तुम्हें किसी का डर नहीं है क्यूँ कि मैं ने भी अपने मोबाइल का पासवर्ड किसी को नहीं बताया