बात सिर्फ़ इतनी थी हम अपने फ़र्सूदा जज़्बों के काठ-कबाड़ को भी उजले लफ़्ज़ों के शो-केसों में सजा कर हम-कलामी करते थे जाने कितने जिस्मों के विसाल से होते हुए एक दूसरे के क़रीब पहुँचे थे हम...! हमारी धुली-धुलाई झोलियों में जुगाली किए हुए बोसों की सड़ांद थी हमारे लम्स ख़ुदा को छूने की ख़्वाहिश में मैले हो रहे थे हथेलियों की चिंगीर में पड़े बासी दुआओं के निवाले हम से निगले न जाते थे लहू थोकती हुई मोहब्बत हम से बिछड़ रही थी और हम मुँह फेर कर उसे रुख़्सत के दो आँसुओं का नमक तक न दे पा रहे थे रिश्ता, सच्चा इज़हार माँगता था और हमारे पास अपनी रफ़ाक़तों की ताज़ियत के लिए भी दो लफ़्ज़ों की तौफ़ीक़ न थी बात सिर्फ़ इतनी थी कि... हमारी रूहें एक दूसरे से मुआवनत नहीं कर पाईं थीं या फिर शायद... हमारे पास एक और मोहब्बत की गुंजाइश ही नहीं थी!