ख़ुद-फ़हमी का अरमाँ है तारीकी में रू-पोश तारीकी ख़ुद बे-चशम-ओ-गोश! इक बे-पायाँ उजलत राहों की अलवंद! सीनों में दिल यूँ जैसे चश्म-ए-आज़-ए-सय्याद ताज़ा ख़ूँ के प्यासे अफ़रंगी मर्दान-ए-राद ख़ुद देव-ए-आहन के मानिंद दरिया के दो साहिल हैं और दोनों ही नापैद शर है दस्त-ए-सियह और ख़ैर का हामिल रू-ए-सफ़ेद इक बार-ए-मिज़्गाँ इक लब-ए-ख़ंद सब पैमाने बे-सर्फ़ा जब सीम-ओ-ज़र मीज़ान जब ज़ौक़-ए-अमल का सर-चश्मा बे-म'अनी हिज़यान जब दहशत हर लम्हा जाँ-कंद ये सब उफ़ुक़ी इंसान हैं ये उन के समावी शहर क्या फिर उन की कमीं में वक़्त के तूफ़ाँ की इक लहर? क्या सब वीरानी के दिल-बंद