वो मौज इक मक़ाम से उफ़ुक़ की सम्त फैलती चली गई वो एक दाएरे से सैकड़ों हसीन दाएरों में देखते ही देखते बदल गई हर एक दाएरे में आफ़्ताब था हर एक दाएरे में सुर्ख़ ज़हर था हर एक दायरा हयात-ए-जावेदाँ हर एक दाएरे में मर्ग-ए-शादमाँ वो एक थी हज़ार सूरतों में मेरे सामने तुलूअ' जब हुई तो मेरा आसमान बन गई नई अज़ीम लज़्ज़तों के दरमियाँ मैं अपने मुश्तइ'ल मक़ाम से उफ़ुक़ की सम्त फैलता चला गया हिसार-ए-मर्ग ज़िंदगी को रौंदता चला गया