जामुन की इक शाख़ पे बैठी इक चिड़िया हरे हरे पत्तों में छप कर गाती है नन्हे नन्हे तीर चलाए जाती है और फिर अपने आप ही कुछ उकताई सी चूँ चूँ करती पर तोले उड़ जाती है धुँदला धुँदला दाग़ सा बनती जाती है मैं अपने आँगन में खोया खोया सा आहिस्ता आहिस्ता घुलता जाता हूँ किसी परिंदे के पर सा लहराता हूँ दूर गगन की उजयाली पेशानी पर धुँदला धुँदला दाग़ सा बनता जाता हूँ