उस ने अपने दिल की काली धरती पर एक दरख़्त उगाया था पहले इस पर उम्मीदों के फल आते थे इस की शाख़ें ख़ुशबुओं के पत्तों से भर जाती थीं यादों की ख़ुशबुएँ फ़ज़ा में बिखर जाती थीं कभी कभी रातों की मायूसी की शबनम सारे दरख़्त को धो देती थी फूलों में नोकीले काँटे बो देती थी फिर भी मैं दुनिया की जलती धूप से घबरा कर अक्सर इस के साए में आ जाता था सुख पाता था लेकिन अब ये दरख़्त तो जैसे संग-ए-सफ़ेद का है इस की शाख़ें दूधिया धात की हैं अब इस पर टेढ़े-मेढ़े मख़रूती और मुरब्बा शक्लों वाले लोहे के फल आते हैं इस का साया गर्म दहकते अँगारों की आग है इस की ख़ुशबू बहते ख़ून का राग है मेरे दिल की मिट्टी पर अब कोई दरख़्त नहीं है नाग है फन फैला कर बैठा है और अपने जिस्म को डसता है जिस्म अब इस का जिस्म नहीं है पीले ख़ून का रस्ता है
This is a great दरख़्त पर शायरी.