हो नहीं सकता तिरी इस ''ख़ुश-मज़ाक़ी'' का जवाब शाम का दिलकश समाँ और तेरे हाथों में किताब रख भी दे अब इस किताब-ए-ख़ुश्क को बाला-ए-ताक़ उड़ रहा है रंग-ओ-बू की बज़्म में तेरा मज़ाक़ छुप रहा है पर्दा-ए-मग़रिब में महर-ए-ज़र-फ़िशाँ दीद के क़ाबिल हैं बादल में शफ़क़ की सुर्ख़ियाँ मौजज़न जू-ए-शफ़क़ है इस तरह ज़ेर-ए-सहाब जिस तरह रंगीन शीशों में झलकती है शराब इक निगारिश-ए-आतिशीं हर शय पे है छाया हुआ जैसे आरिज़ पर उरूस-ए-नौ के हो रंग-ए-हया शाना-ए-गीती पे लहराने को हैं गेसु-ए-शब आसमाँ में मुनअक़िद होने को है बज़्म-ए-तरब उड़ रहे हैं जुस्तुजू में आशियानों के तुयूर आ चला है आइने में चाँद के हल्का सा नूर देख कर ये शाम के नज़्ज़ारा-हा-ए-दिल-नशीं क्या तिरे दिल में ज़रा भी गुदगुदी होती नहीं क्या तिरी नज़रों में ये रंगीनियाँ भाती नहीं क्या हवा-ए-सर्द तेरे दिल को तड़पाती नहीं क्या नहीं होती तुझे महसूस मुझ को सच बता तेज़ झोंकों में हवा के गुनगुनाने की सदा सब्ज़ा-ओ-गुल देख कर तुझ को ख़ुशी होती नहीं उफ़ तिरे एहसास में इतनी भी रंगीनी नहीं हुस्न-ए-फ़ितरत की लताफ़त का जो तू क़ाएल नहीं मैं ये कहता हूँ तुझे जीने का हक़ हासिल नहीं