अजब दिन थे अजब ना-मेहरबाँ दिन थे बहुत ना-मेहरबाँ दिन थे ज़माने मुझ से कहते थे ज़मीनें मुझ से कहती थीं मैं इक बे-बस क़बीले का बहुत तन्हा मुसाफ़िर हूँ वो बे-मंज़िल मुसाफ़िर हूँ जिसे इक घर नहीं मिलता मैं उस रस्ते का राही हूँ जिसे रहबर नहीं मिलता मगर कोई मुसलसल दिल पे इक दस्तक दिए जाता था कहता था मुसाफ़िर! इस क़दर ना-मुतमइन रहने से क्या होगा मलाल ऐसा भी क्या जो ज़ेहन को हर ख़्वाब से महरूम कर दे जमाल-ए-बाग़-ए-आइंदा के हर इम्कान को मादूम कर दे गुल-ए-फ़र्दा को फ़स्ल-ए-रंग में मस्मूम कर दे दिलासे की इसी आवाज़ से सारी थकन कम हो गई थी और दिल को फिर क़रार आने लगा था सफ़र ज़ाद-ए-सफ़र शौक़-ए-सफ़र पर ए'तिबार आने लगा था मैं ख़ुश-क़िस्मत था कैसी साअत-ए-ख़ुश-रंग ओ ख़ुश-आसार में मुझ को मिरे बे-बस बहुत तन्हा क़बीले को नया घर मिल गया था एक रहबर मिल गया था एक मंज़िल मिल गई थी और इमकानों भरा ख़्वाबों से उम्मीदों से रौशन एक मंज़र मिल गया था