आज इस शब के सन्नाटे में नींद ने आँखें फेरी हैं शहर थका-हारा ख़ामोशी की बाहोँ में सोता है यहाँ वहाँ ख़्वाबों के क़तरे शबनम बन कर गिरते हैं कभी कभी कुत्तों की आवाज़ें गलियों से उठती हैं सड़कों पर दिन की रौनक़ के भूत परेशाँ फिरते हैं ज़ख़्मों की मानिंद हसीं जिस्मों पे बरसते हैं सिक्के शीशों के पीछे अफ़्सुर्दा शमएँ अश्क बहाती हैं दस्त-ए-तलब चोरों को तारीकी में राह दिखाता है लम्हों के साहिल पर शोरिश-ए-हस्ती लहरें गिनती है जाने कितनी उम्मीदें इस रात के दिल में रोती हैं और मिरी नज़रों के आगे इम्कानात के भीगे भीगे सायों में जुगनू की तरह फ़िक्र-ओ-तख़य्युल का इक लम्हा धीरे धीरे उभरा है कितने एहसासात तड़प उट्ठे हैं रात के सीने में हाए उस लम्हे की आँखें काश मैं उन में उतर पाऊँ