शब-ओ-रोज़ के मशग़लों से परे कोई ऐसा भी लम्हा है जिस के तसव्वुर में कितने शब-ओ-रोज़ बेचैन गुज़रे धड़कती हुई नब्ज़ डूबी आती-जाती हुई साँस राहों में रुकने लगी अँधेरों के तूफ़ान में एक कश्ती भी साहिल से ओझल हुई कोई जगमगाता सितारा फ़लक की बुलंदी से गिर कर कहीं खो गया सर्द सारा बदन हो गया और फिर जैसे तारीक गोशे में कोई किरन मुस्कुराई कोई आरज़ू हँस पड़ी गर्मी-ए-हसरत-ए-दिल भी ठिठुरे हुए जिस्म में ताज़गी भर गई चल पड़ी फिर शब-ओ-रोज़ के मशग़लों से लदी ज़ंग-आलूद गाड़ी