अल्फ़ाज़ों का एक ख़ज़ाना मेरे पास और ख़्वाबों की एक पिटारी तेरे पास मैं तेरे ख़्वाबों का कोई नाम धरूँ तुम मेरे लफ़्ज़ों में ख़्वाब पिरो देना ताकि हम इस लेन-देन में भूल सकें तन्हाई में चुपके चुपके रो देना मैं ने तेरे एक ख़्वाब को बचपन लिखा जिस में तुम ने ख़ुद को बढ़िया पाया था और कोई तुम से भी इक दो साल बड़ा चंद बताशे तेरी ख़ातिर लाया था मैं ने एक ख़्वाब को लिखा जवानी जिस में तुम इक तीन साल की बच्ची थी जिस्म ज़ेहन से कच्ची थी सच्ची थी ठेठ झूट की जेठ झूट की शिखर दो-पहरी जिस्म ज़ेहन को दुनिया पुख़्ता करती है पता है मुझ को नींद में तेरी अब तक मीलों नन्ही बच्ची ठुमक ठुमक कर चलती है फिर आता है एक महीना नज़्मों का नाक कान को बेधने वाली रस्मों का और बुढ़ापा यहाँ से शुरूअ' नहीं होता