मुझ में आतिश जो छुपी है उसे भड़काने में वस्ल से ज़ियादा तिरे हिज्र की ख़्वाहिश है मुझे जिस्म और जान से आगे भी कोई दुनिया है और उन राहों में तन्हा ही भटकना है मुझे और उन राहों में तन्हा ही भटकना है मुझे तुझ को तस्ख़ीर-ए-बदन की ही रही है ख़्वाहिश और मैं रूह के सौदे के लिए सोचती हूँ तुझ को मालूम है जो शय भी मयस्सर आ जाए उस की फिर क़द्र कहाँ रहती है मैं तुझे सौंप दूँ ख़ुद को तो ख़सारा है बहुत डूबने के लिए आँखों का किनारा है बहुत क्या ये मुमकिन है कि तू रंग में भी रंग ले अपने और दामन पे मिरे दाग़ भी कोई न लगे वस्ल के बाद तो हैरत में कमी आती है फिर जुनूँ-ख़ेज़ी की शिद्दत में कमी आती है हैरत-ए-इश्क़ की गुम-नाम मुसाफ़िर हूँ मुझे ऐसा रद्द कर मिरी हैरत में इज़ाफ़ा हो जाए और इस इश्क़ की शिद्दत में इज़ाफ़ा हो जाए